

तमिलनाडु के डिप्टी सीएम उधयनिधि स्टालिन ने कहा कि केंद्र सरकार ने मेडिकल की पढ़ाई के लिए ठीक उसी तरीके से नीट थोपा जिस तरीके से 1920 के दशक में मेडिकल एजुकेशन के लिए संस्कृत अनिवार्य थी. स्टालिन ने कहा कि एक सदी पहले अगर कोई डॉक्टर बनना चाहता था तो उसे पहले संस्कृत में प्रवेश परीक्षा पास करनी पड़ती थी. क्या वाकई मेडिकल एजुकेशन का संस्कृत से कोई लेना देना है? इसका सीधा सा जवाब है ना. केंद्र सरकार द्वारा लाई गई नीट प्रवेश परीक्षा ग्रामीण, पिछड़े, दलित और वंचित तबके को मेडिकल की पढ़ाई से रोकने की साजिश है. ठीक उसी तरीके से जैसे संस्कृत को साजिश के तहत अनिवार्य किया गया था.
उधयनिधि स्टालिन (Udhayanidhi Stalin) पहले शख्स नहीं हैं जिन्होंने यह दावा किया कि 1920 के दशक में मेडिकल एंट्रेंस के लिए संस्कृत अनिवार्य थी. उनसे पहले तमिलनाडु के मंत्री डॉ. पी त्यागराजन और कई और नेता ऐसा ही दावा कर चुके हैं. तो क्या वाकई 1920 के दशक में तमिलनाडु में मेडिकल एजुकेशन के लिए संस्कृत अनिवार्य थी?

पहले ये रिपोर्ट पढ़ लीजिए
आजादी से पहले तमिलनाडु मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करती था. नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन पर उपलब्ध एक रिसर्च पेपर ‘इवोल्यूशन ऑफ़ मेडिकल एजुकेशन इन इंडिया: द इंपैक्ट ऑफ़ कोलोनियलिज्म’ में भारत में मेडिकल एजुकेशन के इतिहास का विस्तार से ब्यौरा है. जिमसें मद्रास प्रेसिडेंसी का इतिहास भी शामिल है. इस पेपर के मुताबिक मद्रास प्रेसिडेंसी में साल 1853 में एक मेडिकल स्कूल की नींव रखी गई. इसका मकसद मद्रास प्रेसिडेंसी के युवाओं को मेडिसिन और सर्जरी की ट्रेनिंग देना था. शुरुआत में इस स्कूल में 2 साल का कोर्स संचालित किया जाता था, जिसमें एनाटॉमी, मेडिसिन और सर्जरी की पढाई होती थी. बाद में इसमें मिडवाइफरी, फिजियोलॉजी जैसी चीजें भी शामिल की गईं और कोर्स की अवधि 3 साल कर दी गई.
इस रिसर्च पेपर में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि मद्रास प्रेसिडेंसी के मेडिकल स्कूल में दाखिले के लिए संस्कृत अनिवार्य थी अथवा संस्कृत में प्रवेश परीक्षा होती थी. अलबत्ता मद्रास का मेडिकल कॉलेज इतना आधुनिक था कि वो देश का पहला मेडिकल कॉलेज था जहां साल 1875 में महिलाओं के एडमिशन का रास्ता खुला.
साल 2020 में जब तमिलनाडु के मंत्री पी त्यागराजन ने यही दावा किया था तब सोशल मीडिया पर इस दावे को लेकर काफी बहस दिखी थी.त्यागराजन ने तब लिखा था कि 1920 के दशक में मेडिकल एजुकेशन के लिए संस्कृत अनिवार्य थी और बाद में जस्टिस पार्टी ने इसको खत्म किया. इस पर लेखक सुमंत रमन ने सवाल उठाते हुए पूछा था कि अगर संस्कृत अनिवार्य थी तो क्या इससे जुड़ा कोई गवर्नमेंट आर्डर (GO) है? आज तक ऐसा कोई दस्तावेज सामने नहीं आया.
किताब में दावा, उसपर भी सवाल
जवाब में डीएमके नेता ने केएपी विश्वनाथन की एक किताब ‘इनाथु ननबरगल’ का हवाला दिया. हालांकि ननबरगल की किताब में भी इस दावे के समर्थन में कोई सबूत नहीं है.
क्या कहती है तब की रिपोर्ट
लेखक सुमंत रमन ने मद्रास प्रेसिडेंसी की उस वक्त की एक रिपोर्ट भी साझा की और इस दावे पर सवाल उठाए. Report on the administration of Madras Presidency 1904-1905 के मुताबिक उस वक्त मद्रास में 184 स्टूडेंट मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे. जिसमें 22 यूरोपियन थे. जबकि 30 ईसाई, दो मुसलमान, 73 ब्राह्मण और 56 गैर हिंदू और एक पारसी था. सुमंत ने इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए सवाल किया कि क्या ऐसा संभव है कि मद्रास में मेडिकल की पढ़ाई के लिए 22 यूरोपीय स्टूडेंट्स ने पहले संस्कृत सीखी?
अनिवार्यता खत्म करने का जीओ कहां?
डीएमके के नेता लगातार कहते रहे हैं कि जस्टिस पार्टी ने संस्कृत की अनिवार्यता खत्म करने का आदेश दिया. हालांकि इससे जुड़ा भी कोई जीओ नहीं मिलता. लेखक सुमंत भी सवाल करते हैं कि अगर जस्टिस पार्टी ने संस्कृत की अनिवार्यता खत्म की थी तो इससे जुड़ा आदेश जरूर होगा. वह सामने आना चाहिए. उनके मुताबिक तमिलनाडु में मेडिकल की पढाई के लिए संस्कृत की अनिवार्यता की बात सही नहीं है और इस दावे से जुड़े दस्तावेज भी नहीं हैं.